अफगानिस्तान में भारतीय राजनय की परीक्षा
लंबी राजनीतिक अस्थिरता के बाद पिछले दिनों अफगानिस्तान में अशरफ गनी ने सत्ता तो संभाल ली लेकिन वह देश को स्वतंत्रतापूर्वक संचालित नहीं कर पाएंगे, इसलिए उनकी राह बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण होगी.
उन्हें सत्ता की साझेदारी अपने प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के साथ करनी है.
चूंकि दुनिया में सत्ता-साझेदारी का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है, इसलिए इस आशंका से इनकार नहीं कि अफगानिस्तान की कमजोर केंद्रीय व्यवस्था का फायदा तालिबान व पाकिस्तान उठाएंगे. सवाल है कि क्या इससे भारत के लिए प्रतिकूल स्थिति निर्मित नहीं होगी? ऐसे में भारतीय राजनय को किस प्रकार के कदम उठाने की जरूरत होगी?
अफगानिस्तान में दूसरे दौर के चुनाव के बाद भी दोनों में से कोई अपने प्रतिद्वंद्वी को विजेता नहीं मान रहा था. इससे राजनीतिक प्रक्रिया के धराशायी होने का खतरा उत्पन्न हो गया था. ऐसे में दोनों के बीच समझौता करा ‘राष्ट्रीय एकता सरकार’ बनाने का रास्ता बचा था. फिर भी तब तक सरकार नहीं बनी जब तक अमेरिका की तरफ से धमकी नहीं दी गई कि अगर राजनीतिक गतिरोध खत्म नहीं हुआ तो आर्थिक मदद नहीं मिलेगी.
मतलब समझौता अफगानिस्तान को शांतिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि मजबूरी में हुआ है. ऐसे में नई सरकार से अफगानिस्तान के शांतिपूर्ण विकास की राह बनती नहीं दिखती, बल्कि दोनों एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धा में देश को पीछे ले जाने की कोशिश में दिखेंगे. इससे राजनीतिक अनिश्चितता बढ़ेगी, केंद्रीय व्यवस्था कमजोर होगी, प्रशासनिक ढांचा कमजोर होगा और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा. ये स्थितियां अफगानिस्तान में असुरक्षा के हालात पैदा कर सकती हैं. लेकिन भारत के लिए एक सुरक्षित, शांतिपूर्ण और प्रगतिशील अफगानिस्तान की जरूरत है.
दरअसल, अफगानिस्तान इस समय संक्रमण के दौर से से गुजर रहा है. लोकतांत्रिक सत्ता के हस्तांतरण के बावजूद स्थिति बहुत स्पष्ट नजर नहीं आ रही है. हालांकि राष्ट्रपति अशरफ गनी ने बहुप्रतीक्षित सुरक्षा समझौते को मंजूरी दे दी है जिससे साल के आखिर में नाटो सेना की वापसी के बाद भी अमेरिकी सैनिकों को देश में रुकने की अनुमति होगी.
इस समझौते के तहत 2014 के बाद 12 हजार विदेशी सैन्य कर्मियों के रुकने की उम्मीद है जो अफगान सुरक्षाबलों को प्रशिक्षित करने और तालिबान के खिलाफ लड़ाई में सहयोग करेंगे. सवाल है कि 2001 से लेकर 2014 तक अमेरिकी नेतृत्व वाली गठबंधन सेना के रहते अफगानिस्तान की सही अथरे में सुरक्षा नहीं हो पाई, तो 12 हजार अमेरिकी सैनिक क्या कर पाएंगे? इसे देखते हुए ही पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने भारत से सैन्य मदद की इच्छा जताई थी.
वैसे अफगानिस्तान के संक्रमण काल और पुनर्निर्माण के बीच उभरती चुनौतियों को लेकर भारत भी चिंतित है और उसकी मदद करना चाहता है. अफगानिस्तान के सुरक्षित भविष्य को लेकर भारत ने पिछले एक दशक के भीतर अपना काफी कुछ दांव पर लगाया है. यही कारण है यूपीए सरकार के समय भारत ने करजई की मांग की पुष्टि किए बिना ही अफगानिस्तान की सुरक्षा में मदद का आश्वासन दे दिया था. भारत की नई सरकार भी अफगानिस्तान के साथ खड़े होने तथा समुचित जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार है.
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को मजबूत बनाने संबंधी रणनीति के तहत पिछले दिनों विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की यात्रा के दौरान आश्वासन दिया गया था कि भारत अफगानिस्तान को स्थिरता व सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए जरूरी मदद देगा.
इन संबंधों को नई दिशा देने और निर्णायक स्थिति तक ले जाने में भारत को ध्यान रखना होगा कि अफगानिस्तान से अमेरिकी अगुवाई वाली करीब सवा लाख सैन्यकर्मियों की फौज इस वर्ष हट जाएगी और उसके बाद यहां तालिबान और अल कायदा से जुड़े तत्वों के फिर सिर उठाने का खतरा बढ़ेगा. यह खतरा अफगानिस्तान ही नहीं बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशिया के समक्ष संकट पैदा करेगा. जिस तरह इराक और सीरिया आधारित आतंकवादी समूह आईएसआईएस का इन संगठनों से जुड़ाव बढ़ रहा है और अल कायदा ने दक्षिण एशिया में पांव पसारने का संकेत दिया है, उससे लगता है कि इस क्षेत्र में भारत के भी हित सुरक्षित नहीं रह गए हैं.
दूसरी तरफ पाक प्रायोजित आतंकवाद को पाकिस्तानी सेना जिस तरह ताकत दे रही है, उससे लगता है पाकिस्तान एक बार पुन: अफगानिस्तान को अपनी महत्वाकांक्षा का मैदान बनाने का प्रयास करेगा. चूंकि आईएसआईएस-अल कायदा पुनर्सयोजन की प्रक्रिया चल रही है, इसलिए संभव है कि दक्षिण एशिया में इसका प्रभाव तेजी से बढ़े. तीसरा पक्ष यह भी है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई इस पुनर्सयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए और फिर इसका प्रयोग भारत के खिलाफ करने का प्रयास करे. ऐसे में भारत को प्रगतिशील अफगानिस्तान के निर्माण में विशेष भूमिका निभानी होगी.
गौरतलब है, भारत अफगानिस्तान को केवल सुरक्षा के लिए ही मदद नहीं दे रहा है बल्कि आधारभूत मदद भी उपलब्ध करा रहा है जिससे अफगानिस्तान की ‘रूट डायनॉमिक्स’ बदल सकती है. उल्लेखनीय है कि भारत ने कंधार में देश के पहले ‘अफगान नेशनल एग्रीकल्चरल साइंस एंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी’ की स्थापना की है. भारत ने वहां दो अरब डालर से भी ज्यादा के निवेश किए हैं जिसके तहत वहां न केवल 220 किमी लंबी सड़क बनाई है बल्कि बिजली ट्रांसमिशन लाइन और सलमा बांध भी बनाया है. इसके अतिरिक्त भारत ने अफगानिस्तान संसद भवन का निर्माण भी किया है.
बहरहाल, अफगानिस्तान में भारत ने अब तक जिस राजनय का परिचय दिया है, उसमें भावनात्मक व मानवीय पक्ष को अधिक तरजीह दी गई है. ये कदम भारतीय राजनय का आदर्शात्मक पक्ष व्यक्त करते हैं. लेकिन ये पक्ष अफगानिस्तान के आर्थिक विकास में सीधा योगदान नहीं देते. वहां रोजगार में सीधी वृद्धि नहीं करते, वहां के प्रौद्योगिकी विकास को नहीं बढ़ाते या दूसरे शब्दों में कहें तो अफगानों की स्वामीभक्ति को भारत के पक्ष में करने का प्रत्यक्ष प्रयास नहीं करते, जबकि चीनी मदद इसके ठीक विपरीत प्रकृति वाली रही है.
हालांकि अब भारत ने अफगान नेशनल आर्मी (एएनए) की मजबूती के लिए हथियारों और साजो-सामान के बदले रूस को पैसे का भुगतान करने का निर्णय कर लिया है. ऐसे में भारत पर आरोप तो लगेगा कि वह एशिया में तनाव बढ़ाने वाला कदम उठा रहा है, लेकिन पाकिस्तानी ताकत को काउंटर करने और उसके कुटिल इरादों पर नियंत्रण के लिए यह कदम जरूरी होगा. फिलहाल अफगानिस्तान की नई सरकार को आंतरिक संघर्ष से पार पाना है ताकि तालिबान, आईएस-अलकायदा और आईएसआई उसका फायदा न उठा सकें. भारत को इसे लेकर सावधान रहने की जरूरत होगी.
लंबी राजनीतिक अस्थिरता के बाद पिछले दिनों अफगानिस्तान में अशरफ गनी ने सत्ता तो संभाल ली लेकिन वह देश को स्वतंत्रतापूर्वक संचालित नहीं कर पाएंगे, इसलिए उनकी राह बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण होगी.
उन्हें सत्ता की साझेदारी अपने प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के साथ करनी है.
चूंकि दुनिया में सत्ता-साझेदारी का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है, इसलिए इस आशंका से इनकार नहीं कि अफगानिस्तान की कमजोर केंद्रीय व्यवस्था का फायदा तालिबान व पाकिस्तान उठाएंगे. सवाल है कि क्या इससे भारत के लिए प्रतिकूल स्थिति निर्मित नहीं होगी? ऐसे में भारतीय राजनय को किस प्रकार के कदम उठाने की जरूरत होगी?
अफगानिस्तान में दूसरे दौर के चुनाव के बाद भी दोनों में से कोई अपने प्रतिद्वंद्वी को विजेता नहीं मान रहा था. इससे राजनीतिक प्रक्रिया के धराशायी होने का खतरा उत्पन्न हो गया था. ऐसे में दोनों के बीच समझौता करा ‘राष्ट्रीय एकता सरकार’ बनाने का रास्ता बचा था. फिर भी तब तक सरकार नहीं बनी जब तक अमेरिका की तरफ से धमकी नहीं दी गई कि अगर राजनीतिक गतिरोध खत्म नहीं हुआ तो आर्थिक मदद नहीं मिलेगी.
मतलब समझौता अफगानिस्तान को शांतिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि मजबूरी में हुआ है. ऐसे में नई सरकार से अफगानिस्तान के शांतिपूर्ण विकास की राह बनती नहीं दिखती, बल्कि दोनों एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धा में देश को पीछे ले जाने की कोशिश में दिखेंगे. इससे राजनीतिक अनिश्चितता बढ़ेगी, केंद्रीय व्यवस्था कमजोर होगी, प्रशासनिक ढांचा कमजोर होगा और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा. ये स्थितियां अफगानिस्तान में असुरक्षा के हालात पैदा कर सकती हैं. लेकिन भारत के लिए एक सुरक्षित, शांतिपूर्ण और प्रगतिशील अफगानिस्तान की जरूरत है.
दरअसल, अफगानिस्तान इस समय संक्रमण के दौर से से गुजर रहा है. लोकतांत्रिक सत्ता के हस्तांतरण के बावजूद स्थिति बहुत स्पष्ट नजर नहीं आ रही है. हालांकि राष्ट्रपति अशरफ गनी ने बहुप्रतीक्षित सुरक्षा समझौते को मंजूरी दे दी है जिससे साल के आखिर में नाटो सेना की वापसी के बाद भी अमेरिकी सैनिकों को देश में रुकने की अनुमति होगी.
इस समझौते के तहत 2014 के बाद 12 हजार विदेशी सैन्य कर्मियों के रुकने की उम्मीद है जो अफगान सुरक्षाबलों को प्रशिक्षित करने और तालिबान के खिलाफ लड़ाई में सहयोग करेंगे. सवाल है कि 2001 से लेकर 2014 तक अमेरिकी नेतृत्व वाली गठबंधन सेना के रहते अफगानिस्तान की सही अथरे में सुरक्षा नहीं हो पाई, तो 12 हजार अमेरिकी सैनिक क्या कर पाएंगे? इसे देखते हुए ही पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने भारत से सैन्य मदद की इच्छा जताई थी.
वैसे अफगानिस्तान के संक्रमण काल और पुनर्निर्माण के बीच उभरती चुनौतियों को लेकर भारत भी चिंतित है और उसकी मदद करना चाहता है. अफगानिस्तान के सुरक्षित भविष्य को लेकर भारत ने पिछले एक दशक के भीतर अपना काफी कुछ दांव पर लगाया है. यही कारण है यूपीए सरकार के समय भारत ने करजई की मांग की पुष्टि किए बिना ही अफगानिस्तान की सुरक्षा में मदद का आश्वासन दे दिया था. भारत की नई सरकार भी अफगानिस्तान के साथ खड़े होने तथा समुचित जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार है.
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को मजबूत बनाने संबंधी रणनीति के तहत पिछले दिनों विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की यात्रा के दौरान आश्वासन दिया गया था कि भारत अफगानिस्तान को स्थिरता व सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए जरूरी मदद देगा.
इन संबंधों को नई दिशा देने और निर्णायक स्थिति तक ले जाने में भारत को ध्यान रखना होगा कि अफगानिस्तान से अमेरिकी अगुवाई वाली करीब सवा लाख सैन्यकर्मियों की फौज इस वर्ष हट जाएगी और उसके बाद यहां तालिबान और अल कायदा से जुड़े तत्वों के फिर सिर उठाने का खतरा बढ़ेगा. यह खतरा अफगानिस्तान ही नहीं बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशिया के समक्ष संकट पैदा करेगा. जिस तरह इराक और सीरिया आधारित आतंकवादी समूह आईएसआईएस का इन संगठनों से जुड़ाव बढ़ रहा है और अल कायदा ने दक्षिण एशिया में पांव पसारने का संकेत दिया है, उससे लगता है कि इस क्षेत्र में भारत के भी हित सुरक्षित नहीं रह गए हैं.
दूसरी तरफ पाक प्रायोजित आतंकवाद को पाकिस्तानी सेना जिस तरह ताकत दे रही है, उससे लगता है पाकिस्तान एक बार पुन: अफगानिस्तान को अपनी महत्वाकांक्षा का मैदान बनाने का प्रयास करेगा. चूंकि आईएसआईएस-अल कायदा पुनर्सयोजन की प्रक्रिया चल रही है, इसलिए संभव है कि दक्षिण एशिया में इसका प्रभाव तेजी से बढ़े. तीसरा पक्ष यह भी है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई इस पुनर्सयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए और फिर इसका प्रयोग भारत के खिलाफ करने का प्रयास करे. ऐसे में भारत को प्रगतिशील अफगानिस्तान के निर्माण में विशेष भूमिका निभानी होगी.
गौरतलब है, भारत अफगानिस्तान को केवल सुरक्षा के लिए ही मदद नहीं दे रहा है बल्कि आधारभूत मदद भी उपलब्ध करा रहा है जिससे अफगानिस्तान की ‘रूट डायनॉमिक्स’ बदल सकती है. उल्लेखनीय है कि भारत ने कंधार में देश के पहले ‘अफगान नेशनल एग्रीकल्चरल साइंस एंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी’ की स्थापना की है. भारत ने वहां दो अरब डालर से भी ज्यादा के निवेश किए हैं जिसके तहत वहां न केवल 220 किमी लंबी सड़क बनाई है बल्कि बिजली ट्रांसमिशन लाइन और सलमा बांध भी बनाया है. इसके अतिरिक्त भारत ने अफगानिस्तान संसद भवन का निर्माण भी किया है.
बहरहाल, अफगानिस्तान में भारत ने अब तक जिस राजनय का परिचय दिया है, उसमें भावनात्मक व मानवीय पक्ष को अधिक तरजीह दी गई है. ये कदम भारतीय राजनय का आदर्शात्मक पक्ष व्यक्त करते हैं. लेकिन ये पक्ष अफगानिस्तान के आर्थिक विकास में सीधा योगदान नहीं देते. वहां रोजगार में सीधी वृद्धि नहीं करते, वहां के प्रौद्योगिकी विकास को नहीं बढ़ाते या दूसरे शब्दों में कहें तो अफगानों की स्वामीभक्ति को भारत के पक्ष में करने का प्रत्यक्ष प्रयास नहीं करते, जबकि चीनी मदद इसके ठीक विपरीत प्रकृति वाली रही है.
हालांकि अब भारत ने अफगान नेशनल आर्मी (एएनए) की मजबूती के लिए हथियारों और साजो-सामान के बदले रूस को पैसे का भुगतान करने का निर्णय कर लिया है. ऐसे में भारत पर आरोप तो लगेगा कि वह एशिया में तनाव बढ़ाने वाला कदम उठा रहा है, लेकिन पाकिस्तानी ताकत को काउंटर करने और उसके कुटिल इरादों पर नियंत्रण के लिए यह कदम जरूरी होगा. फिलहाल अफगानिस्तान की नई सरकार को आंतरिक संघर्ष से पार पाना है ताकि तालिबान, आईएस-अलकायदा और आईएसआई उसका फायदा न उठा सकें. भारत को इसे लेकर सावधान रहने की जरूरत होगी.
No comments:
Post a Comment