Thursday, 6 November 2014

समावेशी विकास की राह में ये बाधाएं हैं खास :-

समावेशी विकास की राह में ये बाधाएं हैं खास :-
शंकर आचार्य
अगर देश का निर्बाध विकास सुनिश्चित करना है तो कुछसमस्याओं पर खासतौर पर ध्यान देकर उनका हल तलाशने की कोशिश करनी होगी।विस्तार से बता रहे हैं शंकर आचार्य
वर्तमान में आर्थिक विषयों पर हो रही तमाम चर्चा बाहरी वित्त पर पड़ रहे दबाव और अर्थव्यवस्था को 5 फीसदी की धीमी विकास दर से उबारने पर केंद्रित है। जैसा कि मैंने पिछले दिनों लिखा भी था, यह काम आसान नहीं है। अब हमें इन तात्कालिक लक्ष्यों से परे मध्यम अवधि के दौरान तेज उच्च और समावेशी विकास दर हासिल करने के बारे में सोचना होगा। बहरहाल अगर मौजूदा बाधाओं पर नजर डाली जाए तो परिदृश्य बहुत बेहतर नहीं नजर आता। इसे प्रबंधनीय स्तर पर बनाए रखने के लिए मैं चार प्रमुख बाधाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करूंगा।
रोजगार विरोधी कानून
अप्रत्याशित रूप से प्रतिबंधात्मक श्रम कानूनों (इंदिरा गांधी द्वारा छोड़ी गई सबसे नुकसानदेह गरीब विरोधी विरासत में से एक) में थोड़ी ढील देने के लिए कैबिनेट मसौदा तैयार किए जाने के 20 वर्ष बाद अब तक उस दिशा में जरा भी तरक्की नहीं हो सकी है। जाहिर है इसके परिणाम मोटे तौर पर नकारात्मक ही बने रहे हैं। आजादी के 65 साल बाद देश के 50 करोड़ श्रमिकों में से 90 फीसदी से अधिक असंगठित क्षेत्र के रोजगार के जरिये अपना जीवन बिता रहे हैं। उन्हें रोजगार की सुरक्षा भी प्राप्त नहीं है और उनकी आय भी बेहद कम है। औद्योगिक क्षेत्र के नियोक्ताओं ने तमाम वजहों से नए नियमित कर्मचारियों को भर्ती नहीं किया और उन्होंने श्रम आधरित क्षेत्रों मसलन कपड़ा, वस्त्र, चमड़ा उद्योग, खिलौनों और इलेक्ट्रॉनिक्स आदि क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर परिचालन से परहेज किया जबकि ये क्षेत्र सन 1970 के दशक से ही पूर्वी एशियाई देशों में रोजगार आधारित औद्योगीकरण का सफल जरिया बने हुए थे।
आश्चर्य नहीं कि औपचारिक क्षेत्र में रोजगार में ठहराव आ गया। हाल के वर्षों में यानी वर्ष 2004-05 से 2009-10 के दौरान भी रोजगार बहुत धीमी गति से विकसित हुआ। इस बारे में पर्याप्त आंकड़े मौजूद हैं और कुल रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी अस्वाभाविक रूप से ऊंची यानी करीब 50 फीसदी बनी रही, जबकि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी में जमकर कमी आई और वह 15 फीसदी रह गई। युवा आबादी के चलते जिस जननांकीय लाभान्श की बढ़चढ़ कर बात की जाती है वह हमारी खराब श्रम नीतियों के कारण बेकार साबित हो रहा है और बहुत जल्दी वह रोजगार की असुरक्षा, बेरोजगारी और अल्परोजगारी की समस्या में बदल सकता है।
बड़े और मझोले उद्यमों में श्रमिकों को प्रोत्साहन न मिलने ने भी विनिर्माण क्षेत्र के विकास को बुरी तरह प्रभावित किया है। क्षेत्र का जीडीपी में योगदान कई सालों से 15-16 फीसदी पर ठिठका हुआ है। जबकि चीन समेत अन्य एशियाई मुल्कों में यह 30 फीसदी से ज्यादा है। निश्चित तौर अन्य कारक भी इसकी वजह रहे हैं लेकिन श्रम कानूनों से कम।
लुभावनी कल्याण योजनाएं
मोटे तौर पर देखा जाए तो तेज और व्यापक विकास की राह में दूसरा बड़ा रोड़ा है लोकप्रिय राजकोषीय नीतियां और प्रतिस्पर्धी अदूरदर्शी राजनीति। ऐसी राजनीति हर जगह और हर स्तर पर देखने को मिल रही है। इसके दो पहलू हैं: पहला, खराब तरीके से तैयार की गई कल्याण योजनाओं की अपरिपक्व लॉन्चिंग। मसलन काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार आदि। दूसरा, भारी सब्सिडी का माहौल। संप्रग सरकार के कार्यकाल वाले नौ सालों में कल्याण योजनाओं को खूब बढ़ावा दिया गया। जबकि इन उपायों को किफायती और खामी रहित बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया। इसका सीधा मतलब यह है कि विभिन्न योजनाओं में लीकेज, भ्रष्टïाचार और ऐसी अन्य गतिविधियां बनी रहेंगी। इसका नतीजा है राजकोषीय घाटे में इजाफा, बढ़ती महंगाई का जोखिम, भारी भरकम बाहरी घाटा और उच्च ऋण दर तथा कर्ज।
सब्सिडी का लंबा इतिहास रहा है और यह अब भी प्रमुख क्षेत्रों की आर्थिक व्यवहार्यता पर असर डाल रही है। बिजली सब्सिडी (खासकर किसानों की) बिजली क्षेत्र की खस्ता हालत के लिए जिम्मेदार है। इसकी वजह से ही पश्चिमी और उत्तरी भारत में भू-जल स्तर भी खूब गिरा है क्योंकि मुफ्त बिजली होने के चलते लोग खूब पानी निकालते हैं। इसने जल संकट को भी जन्म दिया है। खाद्यान्न सब्सिडी ने कृषि अर्थव्यवस्था में विसंगतियां पैदा की हैं और गैर खाद्य फसलों का विकास रोक दिया है। यूरिया उर्वरक पर बढ़ती सब्सिडी ने मिट्टïी की उर्वर क्षमता को बुरी तरह प्रभावित किया है। भारी भरकम डीजल सब्सिडी ने ऊर्जा सुरक्षा के लिए खतरा पैदा किया है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है।
शासन-प्रशासन की कमजोरी
शासन और प्रशासन भी बड़ा विषय हैं क्योंकि ये हमारे आर्थिक और सामाजिक जीवन के हर पहलू को प्रभावित करते है

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