प्रश्न – जी.एम.फसलें (जेनिटिकल मोडिफाय) पिछले समय से भारत में काफी विवाद में रही हैं। इस विषय पर एक तर्कसंगत लेख प्रस्तुत करें।
उत्तर:--
मूलतः जी.एम. फसलें कृषि केे ऐसे उन्नत बीजों पर आधारित फसलें हैं, जिनमें बीजों के नैसर्गिक चरित्र को बदलकर उनकी उत्पादन क्षमता बढ़ा दी जाती है। इससे कृषि का उत्पादन बढ़ता है। लेकिन दूसरी ओर जैविक सुरक्षा को आधार बनाकर इसका काफी विरोध भी हो रहा है।
देश में अभी केवल कपास के जी.एम.बीज इस्तेमाल करके खेती करने की अनुमति दी गई है। वर्तमान में 93 प्रतिशत क्षेत्र में जी.एम. तकनीक पर आधारित बी टी कॉटन की खेती हो रही है। निसंदेह रूप से इसके कारण कपास का प्रति हेक्टर उत्पादन 362 किलोग्राम से बढ़कर 510 किलोग्राम हो गया है।
वर्तमान में विवाद के केन्द्र में बी टी बैंगन की खेती है। उच्च न्यायालय के द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने अगले दस वर्षों के लिए जी.एम. फसलों के परीक्षण पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। चूँकि कोर्ट ने इस पर कोई निर्देश नहीं दिया, इसलिए जहाँ कुछ राज्यों ने अपने यहाँ इसके फील्ड ट्रायल पर रोक लगा दी है, वहीं महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इसकी अनुमति दे दी है।
विरोध के कारण :--------
वस्तुतः जी.एम. फसलों के प्रश्न पर कृषि वैज्ञानिक भी बट गए हैं। बी.टी. बैंगन के मुद्दे पर यह तथ्य सामने आया है कि बैंगन की कुछ प्रिय किस्म के जीन में बिना अनुमति के बदलाव किया गया।
इस बिन्दु पर भी जी.एम. फसलों का विरोध हो रहा है कि इन फसलों केे विकास में अमेरीका तथा अन्य देशों की बड़ी कम्पनियाँ अनुसंधान कर रही हैं। इसके कारण आशंका जताई जा रही है कि इन फसलों को अपनाने से देश की पूरी कृषि कुछ कम्पनियों के अधीन चली जाएगी। इससे देश की खाद्य सुरक्षा परतंत्र हो जाएगी।
वर्तमान में भारतीय कृषि क्षेत्र बीजों के मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र है। लेकिन जी.एम. फसलों की खेती में हर बारकम्पनियों से ही बीज खरीदने की मजबूरी होती है, क्योंकि खेतों की फसल बीजों की रूप में काम नहीं आती है।
विरोध के पीछे तर्क यह भी है कि इससे हमारे देश के फसलों की जैव विविधता नष्ट हो जाएगी। उत्पादित फसलों का स्वाद भी परिवर्तित हो जाएगा।
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जी.एम. फसल स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त नहीं होती।
इससे नई तरह के कीटाणुओं के जन्म लेने की आशंका होती है, जिनका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इससे हमारी पारम्परिक बीजों की प्रणाली खत्म हो जाएगी।
चूँकि इस तकनीकी में विदेशी कम्पनियां लगी हुई हैं, इसलिए देश की वैज्ञानिक प्रतिभा को विकसित होने का अवसर नहीं मिलेगा।
समर्थन के कारण:-----
इसके विपरीत जी.एम.फसलों की वकालत करने वाला भी एक बड़ा वर्ग है, जिसमें वैज्ञानिक, कुछ कृषक संगठन तथा सरकारी तंत्र के लोग भी शामिल हैं।
इनका सबसे बड़ा तर्क यह है कि देश में बढ़ती हुई आबादी की खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने के लिए जी.एम. फसलों को अपनाना ही एकमात्र विकल्प है।
कृषि क्षेत्र के विकास को तेज करके ही किसानों की आर्थिक स्थिति को सुधारा जा सकता है और ऐसा जी.एम. फसलों के माध्यम से ही सम्भव है।
इसके समर्थकों का यह भी मानना है कि चूंकि इन फसलों में कीटनाशक दवाइयों का कम इस्तेमाल होता है इसलिए खेती की लागत कम होगी।
साथ ही इन कीटनाशकों से पर्यावरण को होने वाले नुकसान से भी बचाया जा सकेगा।
जी.एम. तकनीक ऐसे फसलों को तैयार करती है जिसमें बदलती हुई जलवायु का विशेष दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। इन फसलों पर बीमारियां भी कम लगती हैं। ऐसी फसलों का भी विकास किया जा सकता है, जो सूखे और बाढ़ के प्रभाव से सुरक्षित रहे।
ऐसी स्थिति में जी.एम. फसलें एक ऐसे देश के लिए वरदान सिद्ध हो सकती हैं, जिस देश की लगभग 55 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर हो।
निष्कर्ष :----
दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं और दोनों के तर्क अपनी-अपनी जगह पर सही होने के बावजूद उनकी कुछ सीमाएं भी हैं। यह तो निश्चित है कि बढ़ती हुई आबादी की खाद्यान्न आवश्यकताओं की अनदेखी किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती। कृषि योग्य भूमि का रकबा बढ़ाया नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक्र-कृषि ही एकमात्र उपाय बचता है। अतः जी.एम. फसलों की उपयोगिता को सीधे-सीधे नकारा नहीं जा सकता। किन्तु बजाए इसके कि इसे वर्तमान स्वरूप में ही ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया जाए, उपयुक्त होगा कि घरेलू स्तर पर इसकी कुछ मर्यादाएं निर्धारित की जाएं और इसके बाद इसे प्रोत्साहित किया जाए। इस तरह की मर्यादाओं में निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखा जाना जरूरी जान पड़ता है-
इसके लाभ और हानि को अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से समझा जाए।
मोनसेंटो और सिनजेंटा जैसी कम्पनियां अपने देश में ही विकसित की जाए।
कम्पनियों के कामकाज के लिए स्पष्ट नियम बनाए जाए।
जी.एम. पर अनुसंधान के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश तैयार किए जाएं।
पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की सुरक्षा पर कोई समझौता न किया जाए, तथा
देश की जैव-विविधता को सुनिश्चित किया जाए।
उत्तर:--
मूलतः जी.एम. फसलें कृषि केे ऐसे उन्नत बीजों पर आधारित फसलें हैं, जिनमें बीजों के नैसर्गिक चरित्र को बदलकर उनकी उत्पादन क्षमता बढ़ा दी जाती है। इससे कृषि का उत्पादन बढ़ता है। लेकिन दूसरी ओर जैविक सुरक्षा को आधार बनाकर इसका काफी विरोध भी हो रहा है।
देश में अभी केवल कपास के जी.एम.बीज इस्तेमाल करके खेती करने की अनुमति दी गई है। वर्तमान में 93 प्रतिशत क्षेत्र में जी.एम. तकनीक पर आधारित बी टी कॉटन की खेती हो रही है। निसंदेह रूप से इसके कारण कपास का प्रति हेक्टर उत्पादन 362 किलोग्राम से बढ़कर 510 किलोग्राम हो गया है।
वर्तमान में विवाद के केन्द्र में बी टी बैंगन की खेती है। उच्च न्यायालय के द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने अगले दस वर्षों के लिए जी.एम. फसलों के परीक्षण पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। चूँकि कोर्ट ने इस पर कोई निर्देश नहीं दिया, इसलिए जहाँ कुछ राज्यों ने अपने यहाँ इसके फील्ड ट्रायल पर रोक लगा दी है, वहीं महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इसकी अनुमति दे दी है।
विरोध के कारण :--------
वस्तुतः जी.एम. फसलों के प्रश्न पर कृषि वैज्ञानिक भी बट गए हैं। बी.टी. बैंगन के मुद्दे पर यह तथ्य सामने आया है कि बैंगन की कुछ प्रिय किस्म के जीन में बिना अनुमति के बदलाव किया गया।
इस बिन्दु पर भी जी.एम. फसलों का विरोध हो रहा है कि इन फसलों केे विकास में अमेरीका तथा अन्य देशों की बड़ी कम्पनियाँ अनुसंधान कर रही हैं। इसके कारण आशंका जताई जा रही है कि इन फसलों को अपनाने से देश की पूरी कृषि कुछ कम्पनियों के अधीन चली जाएगी। इससे देश की खाद्य सुरक्षा परतंत्र हो जाएगी।
वर्तमान में भारतीय कृषि क्षेत्र बीजों के मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र है। लेकिन जी.एम. फसलों की खेती में हर बारकम्पनियों से ही बीज खरीदने की मजबूरी होती है, क्योंकि खेतों की फसल बीजों की रूप में काम नहीं आती है।
विरोध के पीछे तर्क यह भी है कि इससे हमारे देश के फसलों की जैव विविधता नष्ट हो जाएगी। उत्पादित फसलों का स्वाद भी परिवर्तित हो जाएगा।
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जी.एम. फसल स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त नहीं होती।
इससे नई तरह के कीटाणुओं के जन्म लेने की आशंका होती है, जिनका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इससे हमारी पारम्परिक बीजों की प्रणाली खत्म हो जाएगी।
चूँकि इस तकनीकी में विदेशी कम्पनियां लगी हुई हैं, इसलिए देश की वैज्ञानिक प्रतिभा को विकसित होने का अवसर नहीं मिलेगा।
समर्थन के कारण:-----
इसके विपरीत जी.एम.फसलों की वकालत करने वाला भी एक बड़ा वर्ग है, जिसमें वैज्ञानिक, कुछ कृषक संगठन तथा सरकारी तंत्र के लोग भी शामिल हैं।
इनका सबसे बड़ा तर्क यह है कि देश में बढ़ती हुई आबादी की खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने के लिए जी.एम. फसलों को अपनाना ही एकमात्र विकल्प है।
कृषि क्षेत्र के विकास को तेज करके ही किसानों की आर्थिक स्थिति को सुधारा जा सकता है और ऐसा जी.एम. फसलों के माध्यम से ही सम्भव है।
इसके समर्थकों का यह भी मानना है कि चूंकि इन फसलों में कीटनाशक दवाइयों का कम इस्तेमाल होता है इसलिए खेती की लागत कम होगी।
साथ ही इन कीटनाशकों से पर्यावरण को होने वाले नुकसान से भी बचाया जा सकेगा।
जी.एम. तकनीक ऐसे फसलों को तैयार करती है जिसमें बदलती हुई जलवायु का विशेष दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। इन फसलों पर बीमारियां भी कम लगती हैं। ऐसी फसलों का भी विकास किया जा सकता है, जो सूखे और बाढ़ के प्रभाव से सुरक्षित रहे।
ऐसी स्थिति में जी.एम. फसलें एक ऐसे देश के लिए वरदान सिद्ध हो सकती हैं, जिस देश की लगभग 55 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर हो।
निष्कर्ष :----
दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं और दोनों के तर्क अपनी-अपनी जगह पर सही होने के बावजूद उनकी कुछ सीमाएं भी हैं। यह तो निश्चित है कि बढ़ती हुई आबादी की खाद्यान्न आवश्यकताओं की अनदेखी किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती। कृषि योग्य भूमि का रकबा बढ़ाया नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक्र-कृषि ही एकमात्र उपाय बचता है। अतः जी.एम. फसलों की उपयोगिता को सीधे-सीधे नकारा नहीं जा सकता। किन्तु बजाए इसके कि इसे वर्तमान स्वरूप में ही ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया जाए, उपयुक्त होगा कि घरेलू स्तर पर इसकी कुछ मर्यादाएं निर्धारित की जाएं और इसके बाद इसे प्रोत्साहित किया जाए। इस तरह की मर्यादाओं में निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखा जाना जरूरी जान पड़ता है-
इसके लाभ और हानि को अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से समझा जाए।
मोनसेंटो और सिनजेंटा जैसी कम्पनियां अपने देश में ही विकसित की जाए।
कम्पनियों के कामकाज के लिए स्पष्ट नियम बनाए जाए।
जी.एम. पर अनुसंधान के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश तैयार किए जाएं।
पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की सुरक्षा पर कोई समझौता न किया जाए, तथा
देश की जैव-विविधता को सुनिश्चित किया जाए।
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